झारखंड बनने के साथ साथ सरकारें आती रहीं और अपने मनोकूल खेल नीतियां बनाती रहीं। नतीजतन अब तक की सारी खेल नीतियां बालू की भीत की तरह ढहती और बिखरती रही और महज सरकारी फाइलों की शोभा एवं विभागीय कार्यवाही का एक कोरम मात्र बनकर रह गयी। वर्तमान सरकार ने भी पूरे जोश, उत्साह एवं वायदों के साथ एक नई खेल नीति बनाई। बड़ी-बड़ी डिंगे हांकी गयीं की अब राज्य के खिलाड़ियों की नियमित नियुक्ति होगी, अब कोई खिलाड़ी पत्थर नहीं तोड़ेगा, सब्जी-हंडिया नहीं बेचेगा, दिहाड़ी मजदूरी नहीं करेगा और न ही अपनी जीविका के लिए किसी के सामने हाथ ही फैलाएगा। घोषणाओं से इतर खिलाड़ी व खेल हित में सारी घोषणायें कोरी कल्पना सिद्ध हो रही हैं।
इसे समझने के निम्न बिंदुओं पर सम्यक विचार किया जा सकता है
1. अभी हाल ही में जब कैबिनेट की बैठक में जेपीएससी नियुक्ति हेतू नीतियों का निर्धारण हो रहा था। तब सभी माननीय एवं राज्य के आलाधिकारी भूल गए कि खिलाड़ियों को सीधी नियुक्ति से राजपत्रित पदाधिकारी नहीं बना सकते परंतु प्रतियोगिता के माध्यम से खेल नीतियों के प्रावधानों के तहत छूट देकर उनको अवसर प्रदान कर उनके प्रति अपने संकल्प को व्यक्त किया जा सकता था। लेकिन अवसर देने की बात तो दूर इसपर चर्चा करना भी उचित नहीं समझा गया। या फिर खिलाड़ियों की सुध लेना भी उचित नहीं समझा।
2. वर्तमान में व्यापक पैमाने पर राज्य स्तर पर बीएड कॉलेजों में नामांकन के लिए काउंसिलिंग चल रही है। इसके लिए 400 रुपये शुल्क जमा करना पड़ता है। गरीब खिलाड़ी पूरे उत्साह के साथ काउंसिलिंग की प्रक्रिया में भाग लेते हैं परंतु जब प्रपत्र में खिलाड़ियों के लिए विशेष प्रावधान ढुंढते हैं तो पता चलता है कि सारे प्रावधान विद्यमान हैं लेकिन खिलाड़ियों का प्रावधान विलुप्त। जबकि पूर्व में नामांकरण के लिए खिलाड़ियों के लिए विशेष प्रावधान होता रहा है और खिलाड़ी लाभान्वित भी होते रहे। लेकिन वर्तमान में ये प्रावधान गायब हो गया है।
उपरोक्त दो बिंदुओं ये सिद्ध हो रहा है कि खिलाड़ियों की योग्यता केवल और केवल सिपाही बनने के लिए, दफतर में झाडू लगाने, पानी पिलाने, फाइल ढोने और अधिक से अधिक बाबू बनकर पदाधिकारियों के ताने सुनने का ही रह गया है। क्या इन्हीं उपलब्धियों के लिए खिलाड़ी देश व राज्य का नाम, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा और गौरव बढ़ाने के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करता है। क्या खिलाड़ियों को पीएचडी, बीएड, एलएलबी अथवा जेपीएससी के माध्यम से भी उच्च पदों पर आसिन होने का अधिकार नहीं है ?
अगर ऐसा ही होता रहा तो वर्तमान खेल नीति भी पूर्व की नीतियों की तरह मंच से दिए जानेवाले भाषणों की शोभा व कागजी दस्तावेज मात्र बनकर रह जाएगी।
धन्यवाद एवं बहुत-बहुत आभार
संजेश मोहन ठाकुर
टिप्पणीकार संजेश मोहन ठाकुर जी कई खेल संगठनों में उच्च पद पर आसीन हैं व सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों से भी गहरे जुड़े हुए हैं।